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Friday 13 June 2014

भारत का भाषा विज्ञान (२)



भारत का भाषा विज्ञान
द्वितीय भाग )


मित्रों ,
भारतीय भाषा का द्वितीय भाग आप सबके साथ शेयर हैं -

पाणिनि और पाणिनिकालीन भाषाशास्त्रीय चिन्तन

पाणिनि और उनकी अष्टाध्यायी 

संसार के भाषाविज्ञानियों में पाणिनि (४५०ईपू) का स्थान सर्वोपरि है। न केवल पौरस्त्य विद्वानों ने, अपितु पाश्चात्य विद्वानों ने भी पाणिनि की श्रेष्टता मुक्तकण्ठ से स्वीकार कर ली है। ईसा के लगभग पांच सौ वर्ष पूर्व ऐसा विलक्ष्ण भाषाविज्ञानी उत्पन्न हुआ था, यह प्रसंग विश्व को प्रेरित करने के साथ ही चकित करने वाला भी रहा है।

पाणिनि का अप्रतिम भाषावैज्ञानिक ग्रन्थ, आठ अध्यायों में विभक्त रहने के कारण, अष्टाध्यायी कहलाता है। आठों अध्यायों में चार-चार पाद हैं। सम्पूर्ण ग्रन्थ सूत्र रूप में रचित है और कुल सूत्रों की संख्या लगभग चार सहस्र (३९९७) है। प्रसिद्ध चौदह माहेश्वर सूत्र ही अष्टाध्यायी के मूलाधार माने गए हैं। अष्टाध्यायी के आठ अध्यायों में संज्ञा (सुबन्त), क्रिया(तिं अत),समास, कारक,सन्धि,कृत् और तद्धित प्रत्यय, स्वर-ध्वनि-विकार और पद का विवेचन किया गया है। परिशिष्ट में गणपाठ एवं धातुपाठ देकर ग्रन्थ की उपादेयता और बढ़ा दी गई है।

 'अष्टाध्यायी'की प्रमुख विशेषताएँ हैं :

(१) वाक्य को भाषा की मूल इकाई मानना।
(२) ध्वनि-उत्पादन-प्रक्रिया का वर्णन एवं ध्वनियों का वर्गीकरण ।
(३) सुबन्त एवं ति अन्त के रूप में सरल और सटीक पद-विभाग।
(४) व्युत्पत्ति - प्रकृति और प्रत्यय के आधार पर शब्दों का विवेचन।

पाणिनि के अन्य ग्रन्थ हैं - उणादिसूत्र, लिंगानुशासन और पाणिनीय शिक्षा। पाणिनिकालीन (कुछ विद्वानों के अनुसार उत्तरकालीन) में कात्यायन एवं पतंजलि विशेष उल्लेखनीय हैं। कात्यायन ने कार्तिक में पाणिनि के सूत्रों का विश्लेषण तो किया ही, अनेक दोषों की ओर भी संकेत किया। भाषावैज्ञानिक दृष्टि से उन संकेतों का भी बड़ा महत्त्व है, क्योंकि समय-परिवर्त्तन तथा भाषा-विकास के साथ भाषा-सम्बन्धी नियमों में भी परिवर्त्तन की अपेक्षा हुआ करती है।

पतञ्जलि और उनका महाभाष्य 

अबतक सम्पूर्ण संसार में महाभाष्यकार के रूप में प्रतिष्ठित होने का श्रेय केवल पतञ्जलि को है।
पतञ्जलि (१५०ईपू) कात्यायन के समकालीन थे अथवा नहीं, यह अभी भी विवाद का विषय बना हुआ है। परन्तु, इतना निश्चित है कि महाभाष्य लिखने के मूल में कात्यनीय वार्तिको की प्रेरणा काम करती रही है। कारण यह कि महाभाष्य का अधिकांश भाग कात्यायन द्वारा उठायी गई शंकाओं के समाधान से सम्बद्ध हैं। पतञ्जलि का मुख्य उद्देश्य उन पाणिनीय सूत्रों को दोषमुक्त सिद्ध करने का रहा है,जो कात्यायन की दृष्टि में या तो दोषमुक्त थे अथवा बहुत उपादेय नहीं थे। इसके अतिरिक्त, उन्होने अष्टाध्यायी के कठिन सूत्रों का भाष्य भी प्रस्तुत किया है, जो अत्यन्त स्पष्ट और विस्तृत है। महाभाष्य में कुल १६८९ सूत्रों की व्याख्या की गई है। यद्यपि महाभाष्य का आधार अष्टाध्यायी ही रही है, तथापि इसमें पतञ्जलि ने जनभाषा का जैसा विस्तृत विवेचन किया है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। उनका भाषाविषयक अध्ययन तो गहन एवं व्यापक था ही, भाषा-विश्लेषण की क्षमता भी उनमें विलक्षण थी। संस्कृत,प्राकृत और अपभ्रंश इन तीनों प्रकार की भाषाओं को ध्यान में रखते हुए उन्होंने भाषा को एक व्यवस्थित स्वरूप प्रदान किया । भाषा-चिन्तन के क्षेत्र में उनका यह विशिष्ट अवदान माना जाता है।

पाणिनि, कात्यायन एवं पतञ्जलि को मुनित्रय के रूप में सादर स्मरण किया जाता है। इन तीनों महान् भाषाचिन्तको को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। ये तीनों भाषाशास्त्री विश्व-विश्रुत हो चुके हैं और जबतक भाषा-विश्लेषण होता रहेगा, उनका उल्लेख अपेक्षित समझा जाएगा |



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-वयं राष्ट्रे जागृयाम_चंशे-
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भारत का भाषा विज्ञान (१)


भारत का भाषा विज्ञान
( प्रथम भाग )
 

मित्रों ..
आईये भारतीय भाषा के इतिहास और ऋषिकृत वैज्ञानिक भाषा चिंतन को जाने - 

भारत के प्राचीन भाषा-चिन्तन पर निम्नलिखित रूपों में विचार करना अधिक युक्तिसंगत प्रतीत होता है :
(क) पाणिनिपूर्व भाषा-चिन्तन
(ख) पाणिनि और पाणिनिकालीन भाषाशास्त्रीय चिन्तन
(ग) पाणिनि-पश्चात् भाषाध्ययन।

प्रस्तुत पोस्ट उपरोक्त अनुसार तीन भागो में बहुत संक्षेप में होगी - प्रस्तुत हैं प्रथम भाग 

( क) पाणिनिपूर्व भाषा-चिन्तन -

प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद में अनेक बार 'वाक्' के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है। भाषाशास्त्र में वाक्(स्पीच)-विवेचन एक अत्यंत जटिल विषय है। 'वाक्' वह मूल शक्ति है, जिसे हम सामाजिक सन्दर्भो के माध्यम से भाषा के रूप में ग्रहण करते हैं। वेद में इसी वाक्-शक्ति की अधिष्ठात्री देवी के रूप में सरस्वती का आह्वान किया गया है, जिसमें इस बात की कामना की गई है कि वे वाक्-शक्ति का पान कराकर विश्व को पुष्ट करें। अर्थात् मनुष्यों को सम्यरूपेण वाणी-प्रयोग के योग्य बनाए। 'उच्चारण भाषा का प्राणतत्त्व होता है', इसे सभी भाषाविज्ञानी स्वीकार करते हैं। वेद में शुद्ध उच्चारण को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना गया है। चूँकि वेद 'अपौरुषेय' है, इसलिए उसका समय निश्चित नहीं है।
वेदो के बाद ब्राह्मणग्रन्थों का समय आता है। ऐतरेय ब्राह्मण में भाषाविज्ञान के दो मुख्य विषयों - भाषा-वर्गीकरण एवं शब्द-अर्थ का विवेचन किया गया है। वेद-पाठ थोड़ा कठिन है। उसके अध्ययन को सरल बनाने के लिए पदपाठ की रचनाकर 'वेद-वाक्य'को पदों में विभक्त किया गया और इस क्रम में सन्धि, समास, स्वराघात जैसे विषयों का विश्लेषण भी हुआ। यह निश्चय ही भाषा का वैज्ञानिक अध्ययन था। पदपाठ' के पश्चात् प्रातिशाख्यों एवं शिक्षाग्रन्थों का निर्माण कर ध्वनियों का वर्गीकरण, उच्चारण, स्वराघात, मात्रा आदि अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भाषावैज्ञानिक विषयों पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया। विभिन्न संहिताओं के उच्चारण-भेदों को सुरक्षित रखने एवं ध्वनि की सूक्ष्मताओ का विवेचन करने में क्रमशः प्रातिशाख्यों और शिक्षाग्रन्थों का अपना विशिष्ट स्थान है।

प्रातिशाख्यों में ऋप्रातिशाख्य (शौनक), शुक्लयजुः प्रातिशाख्य(कात्यायन), मैत्रायणी प्रातिशाख्य आदि प्रमुख हैं और शिक्षाग्रन्थों (ध्वनिशास्त्रों) के निर्माताओं मे याज्ञवल्क्य, व्यास, वसिष्ठ आदि विख्यात हैं। इसी क्रम में उपनिषदों की चर्चा भी अपेक्षित है - विशेषकर तैत्तिरीय उपनिषद् की। इसमें अक्षर, अथवा वर्ण, स्वर, मात्रा, बल आदि भाषीय तत्त्वों पर भी चिन्तन किया गया है।

वैदिक शब्दों का जो कोश तैयार किया गया, उसे 'निघंटु' की संज्ञा दी गई। इसका निर्माण-काल ८०० ई।पू। के आसपास माना जाता है। 'निघंटु'में संगृहीत वैदिक शब्दों का अर्थ-विवेचन किया गया 'निरुक्त'में। निरुक्तकार यास्क ने अर्थ के साथ-साथ शब्द-भेद, शब्द-अर्थ का सम्बन्ध जैसे विषयों पर भी विचार किया गया था |

क्रमश:

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-वयं राष्ट्रे जागृयाम_चंशे-
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