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Friday 13 June 2014

भारत का भाषा विज्ञान (१)


भारत का भाषा विज्ञान
( प्रथम भाग )
 

मित्रों ..
आईये भारतीय भाषा के इतिहास और ऋषिकृत वैज्ञानिक भाषा चिंतन को जाने - 

भारत के प्राचीन भाषा-चिन्तन पर निम्नलिखित रूपों में विचार करना अधिक युक्तिसंगत प्रतीत होता है :
(क) पाणिनिपूर्व भाषा-चिन्तन
(ख) पाणिनि और पाणिनिकालीन भाषाशास्त्रीय चिन्तन
(ग) पाणिनि-पश्चात् भाषाध्ययन।

प्रस्तुत पोस्ट उपरोक्त अनुसार तीन भागो में बहुत संक्षेप में होगी - प्रस्तुत हैं प्रथम भाग 

( क) पाणिनिपूर्व भाषा-चिन्तन -

प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद में अनेक बार 'वाक्' के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है। भाषाशास्त्र में वाक्(स्पीच)-विवेचन एक अत्यंत जटिल विषय है। 'वाक्' वह मूल शक्ति है, जिसे हम सामाजिक सन्दर्भो के माध्यम से भाषा के रूप में ग्रहण करते हैं। वेद में इसी वाक्-शक्ति की अधिष्ठात्री देवी के रूप में सरस्वती का आह्वान किया गया है, जिसमें इस बात की कामना की गई है कि वे वाक्-शक्ति का पान कराकर विश्व को पुष्ट करें। अर्थात् मनुष्यों को सम्यरूपेण वाणी-प्रयोग के योग्य बनाए। 'उच्चारण भाषा का प्राणतत्त्व होता है', इसे सभी भाषाविज्ञानी स्वीकार करते हैं। वेद में शुद्ध उच्चारण को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना गया है। चूँकि वेद 'अपौरुषेय' है, इसलिए उसका समय निश्चित नहीं है।
वेदो के बाद ब्राह्मणग्रन्थों का समय आता है। ऐतरेय ब्राह्मण में भाषाविज्ञान के दो मुख्य विषयों - भाषा-वर्गीकरण एवं शब्द-अर्थ का विवेचन किया गया है। वेद-पाठ थोड़ा कठिन है। उसके अध्ययन को सरल बनाने के लिए पदपाठ की रचनाकर 'वेद-वाक्य'को पदों में विभक्त किया गया और इस क्रम में सन्धि, समास, स्वराघात जैसे विषयों का विश्लेषण भी हुआ। यह निश्चय ही भाषा का वैज्ञानिक अध्ययन था। पदपाठ' के पश्चात् प्रातिशाख्यों एवं शिक्षाग्रन्थों का निर्माण कर ध्वनियों का वर्गीकरण, उच्चारण, स्वराघात, मात्रा आदि अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भाषावैज्ञानिक विषयों पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया। विभिन्न संहिताओं के उच्चारण-भेदों को सुरक्षित रखने एवं ध्वनि की सूक्ष्मताओ का विवेचन करने में क्रमशः प्रातिशाख्यों और शिक्षाग्रन्थों का अपना विशिष्ट स्थान है।

प्रातिशाख्यों में ऋप्रातिशाख्य (शौनक), शुक्लयजुः प्रातिशाख्य(कात्यायन), मैत्रायणी प्रातिशाख्य आदि प्रमुख हैं और शिक्षाग्रन्थों (ध्वनिशास्त्रों) के निर्माताओं मे याज्ञवल्क्य, व्यास, वसिष्ठ आदि विख्यात हैं। इसी क्रम में उपनिषदों की चर्चा भी अपेक्षित है - विशेषकर तैत्तिरीय उपनिषद् की। इसमें अक्षर, अथवा वर्ण, स्वर, मात्रा, बल आदि भाषीय तत्त्वों पर भी चिन्तन किया गया है।

वैदिक शब्दों का जो कोश तैयार किया गया, उसे 'निघंटु' की संज्ञा दी गई। इसका निर्माण-काल ८०० ई।पू। के आसपास माना जाता है। 'निघंटु'में संगृहीत वैदिक शब्दों का अर्थ-विवेचन किया गया 'निरुक्त'में। निरुक्तकार यास्क ने अर्थ के साथ-साथ शब्द-भेद, शब्द-अर्थ का सम्बन्ध जैसे विषयों पर भी विचार किया गया था |

क्रमश:

||•|| वंदे-मातरम् ||•||
-वयं राष्ट्रे जागृयाम_चंशे-
~*~ जयहिंद ~*~

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