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Friday 13 June 2014

भारत का भाषा विज्ञान (२)



भारत का भाषा विज्ञान
द्वितीय भाग )


मित्रों ,
भारतीय भाषा का द्वितीय भाग आप सबके साथ शेयर हैं -

पाणिनि और पाणिनिकालीन भाषाशास्त्रीय चिन्तन

पाणिनि और उनकी अष्टाध्यायी 

संसार के भाषाविज्ञानियों में पाणिनि (४५०ईपू) का स्थान सर्वोपरि है। न केवल पौरस्त्य विद्वानों ने, अपितु पाश्चात्य विद्वानों ने भी पाणिनि की श्रेष्टता मुक्तकण्ठ से स्वीकार कर ली है। ईसा के लगभग पांच सौ वर्ष पूर्व ऐसा विलक्ष्ण भाषाविज्ञानी उत्पन्न हुआ था, यह प्रसंग विश्व को प्रेरित करने के साथ ही चकित करने वाला भी रहा है।

पाणिनि का अप्रतिम भाषावैज्ञानिक ग्रन्थ, आठ अध्यायों में विभक्त रहने के कारण, अष्टाध्यायी कहलाता है। आठों अध्यायों में चार-चार पाद हैं। सम्पूर्ण ग्रन्थ सूत्र रूप में रचित है और कुल सूत्रों की संख्या लगभग चार सहस्र (३९९७) है। प्रसिद्ध चौदह माहेश्वर सूत्र ही अष्टाध्यायी के मूलाधार माने गए हैं। अष्टाध्यायी के आठ अध्यायों में संज्ञा (सुबन्त), क्रिया(तिं अत),समास, कारक,सन्धि,कृत् और तद्धित प्रत्यय, स्वर-ध्वनि-विकार और पद का विवेचन किया गया है। परिशिष्ट में गणपाठ एवं धातुपाठ देकर ग्रन्थ की उपादेयता और बढ़ा दी गई है।

 'अष्टाध्यायी'की प्रमुख विशेषताएँ हैं :

(१) वाक्य को भाषा की मूल इकाई मानना।
(२) ध्वनि-उत्पादन-प्रक्रिया का वर्णन एवं ध्वनियों का वर्गीकरण ।
(३) सुबन्त एवं ति अन्त के रूप में सरल और सटीक पद-विभाग।
(४) व्युत्पत्ति - प्रकृति और प्रत्यय के आधार पर शब्दों का विवेचन।

पाणिनि के अन्य ग्रन्थ हैं - उणादिसूत्र, लिंगानुशासन और पाणिनीय शिक्षा। पाणिनिकालीन (कुछ विद्वानों के अनुसार उत्तरकालीन) में कात्यायन एवं पतंजलि विशेष उल्लेखनीय हैं। कात्यायन ने कार्तिक में पाणिनि के सूत्रों का विश्लेषण तो किया ही, अनेक दोषों की ओर भी संकेत किया। भाषावैज्ञानिक दृष्टि से उन संकेतों का भी बड़ा महत्त्व है, क्योंकि समय-परिवर्त्तन तथा भाषा-विकास के साथ भाषा-सम्बन्धी नियमों में भी परिवर्त्तन की अपेक्षा हुआ करती है।

पतञ्जलि और उनका महाभाष्य 

अबतक सम्पूर्ण संसार में महाभाष्यकार के रूप में प्रतिष्ठित होने का श्रेय केवल पतञ्जलि को है।
पतञ्जलि (१५०ईपू) कात्यायन के समकालीन थे अथवा नहीं, यह अभी भी विवाद का विषय बना हुआ है। परन्तु, इतना निश्चित है कि महाभाष्य लिखने के मूल में कात्यनीय वार्तिको की प्रेरणा काम करती रही है। कारण यह कि महाभाष्य का अधिकांश भाग कात्यायन द्वारा उठायी गई शंकाओं के समाधान से सम्बद्ध हैं। पतञ्जलि का मुख्य उद्देश्य उन पाणिनीय सूत्रों को दोषमुक्त सिद्ध करने का रहा है,जो कात्यायन की दृष्टि में या तो दोषमुक्त थे अथवा बहुत उपादेय नहीं थे। इसके अतिरिक्त, उन्होने अष्टाध्यायी के कठिन सूत्रों का भाष्य भी प्रस्तुत किया है, जो अत्यन्त स्पष्ट और विस्तृत है। महाभाष्य में कुल १६८९ सूत्रों की व्याख्या की गई है। यद्यपि महाभाष्य का आधार अष्टाध्यायी ही रही है, तथापि इसमें पतञ्जलि ने जनभाषा का जैसा विस्तृत विवेचन किया है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। उनका भाषाविषयक अध्ययन तो गहन एवं व्यापक था ही, भाषा-विश्लेषण की क्षमता भी उनमें विलक्षण थी। संस्कृत,प्राकृत और अपभ्रंश इन तीनों प्रकार की भाषाओं को ध्यान में रखते हुए उन्होंने भाषा को एक व्यवस्थित स्वरूप प्रदान किया । भाषा-चिन्तन के क्षेत्र में उनका यह विशिष्ट अवदान माना जाता है।

पाणिनि, कात्यायन एवं पतञ्जलि को मुनित्रय के रूप में सादर स्मरण किया जाता है। इन तीनों महान् भाषाचिन्तको को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। ये तीनों भाषाशास्त्री विश्व-विश्रुत हो चुके हैं और जबतक भाषा-विश्लेषण होता रहेगा, उनका उल्लेख अपेक्षित समझा जाएगा |



||•|| वंदे-मातरम् ||•||
-वयं राष्ट्रे जागृयाम_चंशे-
~*~ जयहिंद ~*~

भारत का भाषा विज्ञान (१)


भारत का भाषा विज्ञान
( प्रथम भाग )
 

मित्रों ..
आईये भारतीय भाषा के इतिहास और ऋषिकृत वैज्ञानिक भाषा चिंतन को जाने - 

भारत के प्राचीन भाषा-चिन्तन पर निम्नलिखित रूपों में विचार करना अधिक युक्तिसंगत प्रतीत होता है :
(क) पाणिनिपूर्व भाषा-चिन्तन
(ख) पाणिनि और पाणिनिकालीन भाषाशास्त्रीय चिन्तन
(ग) पाणिनि-पश्चात् भाषाध्ययन।

प्रस्तुत पोस्ट उपरोक्त अनुसार तीन भागो में बहुत संक्षेप में होगी - प्रस्तुत हैं प्रथम भाग 

( क) पाणिनिपूर्व भाषा-चिन्तन -

प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद में अनेक बार 'वाक्' के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है। भाषाशास्त्र में वाक्(स्पीच)-विवेचन एक अत्यंत जटिल विषय है। 'वाक्' वह मूल शक्ति है, जिसे हम सामाजिक सन्दर्भो के माध्यम से भाषा के रूप में ग्रहण करते हैं। वेद में इसी वाक्-शक्ति की अधिष्ठात्री देवी के रूप में सरस्वती का आह्वान किया गया है, जिसमें इस बात की कामना की गई है कि वे वाक्-शक्ति का पान कराकर विश्व को पुष्ट करें। अर्थात् मनुष्यों को सम्यरूपेण वाणी-प्रयोग के योग्य बनाए। 'उच्चारण भाषा का प्राणतत्त्व होता है', इसे सभी भाषाविज्ञानी स्वीकार करते हैं। वेद में शुद्ध उच्चारण को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना गया है। चूँकि वेद 'अपौरुषेय' है, इसलिए उसका समय निश्चित नहीं है।
वेदो के बाद ब्राह्मणग्रन्थों का समय आता है। ऐतरेय ब्राह्मण में भाषाविज्ञान के दो मुख्य विषयों - भाषा-वर्गीकरण एवं शब्द-अर्थ का विवेचन किया गया है। वेद-पाठ थोड़ा कठिन है। उसके अध्ययन को सरल बनाने के लिए पदपाठ की रचनाकर 'वेद-वाक्य'को पदों में विभक्त किया गया और इस क्रम में सन्धि, समास, स्वराघात जैसे विषयों का विश्लेषण भी हुआ। यह निश्चय ही भाषा का वैज्ञानिक अध्ययन था। पदपाठ' के पश्चात् प्रातिशाख्यों एवं शिक्षाग्रन्थों का निर्माण कर ध्वनियों का वर्गीकरण, उच्चारण, स्वराघात, मात्रा आदि अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भाषावैज्ञानिक विषयों पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया। विभिन्न संहिताओं के उच्चारण-भेदों को सुरक्षित रखने एवं ध्वनि की सूक्ष्मताओ का विवेचन करने में क्रमशः प्रातिशाख्यों और शिक्षाग्रन्थों का अपना विशिष्ट स्थान है।

प्रातिशाख्यों में ऋप्रातिशाख्य (शौनक), शुक्लयजुः प्रातिशाख्य(कात्यायन), मैत्रायणी प्रातिशाख्य आदि प्रमुख हैं और शिक्षाग्रन्थों (ध्वनिशास्त्रों) के निर्माताओं मे याज्ञवल्क्य, व्यास, वसिष्ठ आदि विख्यात हैं। इसी क्रम में उपनिषदों की चर्चा भी अपेक्षित है - विशेषकर तैत्तिरीय उपनिषद् की। इसमें अक्षर, अथवा वर्ण, स्वर, मात्रा, बल आदि भाषीय तत्त्वों पर भी चिन्तन किया गया है।

वैदिक शब्दों का जो कोश तैयार किया गया, उसे 'निघंटु' की संज्ञा दी गई। इसका निर्माण-काल ८०० ई।पू। के आसपास माना जाता है। 'निघंटु'में संगृहीत वैदिक शब्दों का अर्थ-विवेचन किया गया 'निरुक्त'में। निरुक्तकार यास्क ने अर्थ के साथ-साथ शब्द-भेद, शब्द-अर्थ का सम्बन्ध जैसे विषयों पर भी विचार किया गया था |

क्रमश:

||•|| वंदे-मातरम् ||•||
-वयं राष्ट्रे जागृयाम_चंशे-
~*~ जयहिंद ~*~

Friday 13 December 2013

महाभारत कालीन विमान





महाभारत कालीन विमान 

नमस्ते मित्रों !

आज आपसे हमारे इतिहास के गौरव मय वैज्ञानिक उपलब्धि की बात करते है कि हमारी संस्कृत शिक्षा प्रणाली श्रेष्ठत्तम हुआ करती थी ! प्रमाण पढ़े-

5000 साल पहले का "विमान" मिला है
अक्सर अंग्रेजी स्कूलों के कुछ ज्यादा ही पढ़े लिखे तथा सेकुलरों में यह कहने का फैशन चल पड़ा है कि महाभारत तो एक काल्पनिक घटना है औरbइसका सच्चाई से कोई वास्ता नहीं है.!

लेकिन यह लेख एवं जानकारी उन सेकुलरों के मुंह पर एक जोरदार तमाचा मारते हुए उनके मुंह पर कालिख पोत रहा है !

दरअसल ओसामा बिन लादेन नामक इस्लामी आतंकवादी को खोजते हुए अमेरिका के सैनिकों को अफगानिस्तान (कंधार) की एक गुफा में 5000 साल पहले का "विमान" मिला है ,जिसे महाभारत काल का बताया जा गया है !

सिर्फ इतना ही नहीं वरन् 
Russian Foreign Intelligence ने साफ़ साफ़ बताया है कि ये वही विमान है जो संस्कृत रचित महाभारत में वर्णित है |जब इसका इंजन शुरू होता है तो बड़ी मात्रा में प्रकाश का उत्सर्जन होता है।
हालाँकि इस न्यूज़ को भारत के बिकाऊ मिडिया ने महत्व नहीं दिया क्यों कि, उनकी नजर में भारत के हम हिंदूओ ( आर्यो ) की महिमा बढ़ाने वाली ये खबर सांप्रदायिक है !!

ज्ञातव्य है कि Russian Foreign Intelligence Service (SVR) report द्वारा 21 December 2010 को एक रिपोर्ट प्रस्तुत की गयी जिसमे बताया गया था कि ये विमान द्वारा उत्पन्न एक रहस्यमयी Time Well क्षेत्र है - जिसकी खतरनाक electromagnetic shockwave से ये अमेरिका के कमांडो मारे गये या गायब हो गये तथा इस की वजह से कोई गुफा में नहीं जा पा रहा।

शायद आप लोगों को याद होगा कि महाराज धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी एवं मामा शकुनि गंधार के ही थे |

महाभारत में इस विमान का वर्णन करते हुए कहा गया है कि...

हम एक विमान जिसमे कि चार मजबूत पहिये लगे हुए हैं, एवं परिधि में बारह हाथ के हैं | इसके अलावा 'प्रज्वलन पक्षेपात्रों ' से सुसज्जित है | परिपत्र 'परावर्तक' के माध्यम से संचालित होता है और उसके अन्य घातक हथियारों का इस्तेमाल करते हैं !

जब उसे किसी भी लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित कर पक्षेपित किया जाता है तो, तुरंत वह अपनी शक्ति के साथ लक्ष्य को भस्म कर देता है यह जाते समय एक 'प्रकाश पुंज' का उत्पादन करता हैं !

( स्पष्ट बात है कि यहां महाभारत काल में विमान एवं मिसाइल की बात की जा रही है )

हमारे महाभारत के इसी बात को US Military के scientists सत्यापित करते हुए यह बताते हैं कि ये विमान 5000 हज़ार पुराना (महाभारत कालीन) है, 
और जब कमांडो इसे निकालने का प्रयास कर रहे थे तो ये सक्रिय हो गया जिससे इसके चारों और Time Well क्षेत्र उत्पन्न हो गया और यही क्षेत्र विमान को पकडे हुए है इसीलिए इस Time Well क्षेत्र के सक्रिय होने के बाद 8 सील कमांडो गायब हो गए।

जानकारी के लिए बता दूँ की Time Well क्षेत्र " विद्युत-चुम्बकीय " क्षेत्र होता है जो हमारे आकाश गंगा की तरह सर्पिलाकार होता है ।

वहीं एक कदम आगे बढ़ कर Russian Foreign Intelligence ने तो साफ़ साफ़ बताया कि ये वही विमान है जो संस्कृत रचित महाभारत में वर्णित है।

सिर्फ इतना ही नहीं SVR report का कहना है कि यह क्षेत्र 5 August को फिर सक्रिय हुआ था जिससे एक बार फिर electromagnetic shockwave नामक खतरनाक किरणें उत्पन्न हुई और ये इतनी खतरनाक थी कि इससे 40 सिपाही तथा trained German Shepherd dogs भी इसकी चपेट में आ गए।

ये प्रत्यक्ष प्रमाण है हमारे हिन्दू(आर्य) सनातन धर्म के उत्कृष्ट विज्ञान का और यह साफ साफ तमाचा है उन सेकुलरों( मुस्लिमों / ईसाईयों के हिमायतीयो ) के मुंह पर जो हमारे हिन्दू सनातन धर्म पर उंगली उठाते हैं और जिन्हें रामायण और महाभारत एक काल्पनिक कथा मात्र लगती है..!

जागो हिन्दुओं (आर्यो ) और पहचानो अपने आप को , पहचानो अपने गौरवशाली इतिहास संस्कृति और उत्कृष्ट विज्ञान को |

!! जय श्री राम !!

वयं राष्ट्रे जागृयाम_चंशे-

Saturday 16 November 2013

* कर्म-रहस्य * (समापन-सत्र)

* कर्म-रहस्य *
(समापन-सत्र)


 प्रारब्ध कर्म से मिलने वाले फल के दो भेद हैं -
(१) प्राप्त फल और (२) अप्राप्त फल
वर्तमान में प्राणियों के सामने जो अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति आ रही हैं, वह ' प्राप्त ' फल हैं | और इसी जन्म में जो अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति भविष्य में आने वाली हैं, वह ' अप्राप्त ' फल हैं |

क्रियमाण कर्मों का फल-अंश जब तक संचित में जमा रहता हैं, वही प्रारब्ध बन कर अनुकूल, प्रतिकूल और मिश्रित परिस्थितियों के रुप में मनुष्य के सामने आता हैं | अतः जबतक संचित कर्म रहते हैं, तबतक प्रारब्ध बनता ही रहता हैं और प्रारब्ध परिस्थितियों के रुप में परीणित होता रहता हैं |

यह परिस्थिति मनुष्य को सुखी-दुःखी होने के लिए बाध्य नहीं करती | सुखी-दुःखी होने में तो परिवर्तनशील परिस्थिति के साथ संबध जोड़ना ही मुख्य कारण हैं |

परिस्थिति के साथ संबंध जोडने अथवा न जोड़ने में मनुष्य सर्वथा स्वाधीन हैं, पराधीन नहीं हैं | जो परिवर्तनशील परिस्थिति के साथ अपना संबंध मान लेता हैं, वह अविवेकी पुरुष तो सुखी-दुःखी होता ही रहता हैं | परंतु जो परिस्थिति के साथ संबंध नहीं मानता, वह विवेकी पुरुष कभी सुखी-दुःखी नहीं होता ; अतः उसकी स्थिति स्वतः साम्यावस्था में होती हैं, जो कि उसका स्वरूप हैं |

यही मनुष्य जन्म का लक्ष्य भी हैं ..कि सत्य की प्राप्ति और सहज कर्म-बंधन काटते हुए क्रमशः मोक्ष अवस्था तक पहुँचना |

जय श्री राम !! मित्रों कर्म-रहस्य के इस पत्र पोस्ट श्रंखला को यही विराम दे रहा हूँ ,बहुत गंभीर और अंनंत समय तक चर्चा न करते हुए एक प्रश्नोंत्तर से इसे पूर्ण करते हैं -

प्रश्न - कर्मों में मनुष्य के 'प्रारब्ध' की प्रधानता हैं या 'पुरुषार्थ' की ?
अर्थात प्रारब्ध बलवान या पुरुषार्थ बलवान ?

उत्तर - इस विषय में बहुत सी शंकाएँ हुआ करती हैं अतः इस प्रश्न के समाधान के लिए यह समझ लेना आवश्य हैं कि मनुष्य की चार तरह की चाहना ( ईच्छाऐं) होती हैं -
(१) धन /अर्थ की (२) धर्म /ज्ञान की (३) काम /भोग की (४) मोक्ष /मुक्ति की
इन चारों में 'अर्थ' (धन) और 'काम'(भोग) की प्राप्ति में "प्रारब्ध" की प्रधानता होती हैं और पुरुषार्थ की गौणता हैं, तथा 'धर्म'(ज्ञान) और 'मोक्ष'(मुक्ति) में "पुरुषार्थ" की प्रधानता होती हैं एवं प्रारब्ध की गौणता हैं |

प्रारब्ध और पुरुषार्थ दोनों का क्षैत्र अलग-अलग हैं और दोनों ही अपने-अपने क्षैत्र में प्रधान या बलवान हैं |

इसीलिए कहा हैं -
" संतोषस्रिषु कर्तव्य: स्वदारे भोजने धने |
त्रिषु चैव न कर्तव्यः स्वध्याये जपदानयों || "

आशा हैं सभी मित्रों को कर्म संबंधी ज्ञान व गीता के उपदेश का अर्थ महत्व व भाव समझ आये होगे !!

हम सब कर्म योग के द्वारा अपना व देश का हित करते चलें ..

वयं राष्ट्रे जागृयाम _चंशे-

!! जय श्री राम !!

Friday 15 November 2013

कर्म-रहस्य (५) * प्रारब्ध *




कर्म-रहस्य (५)
* प्रारब्ध *


संचित कर्मों में जो कर्म-फल देने को सम्मुख होते है, उन कर्मों को प्रारब्ध कर्म कहते हैं |

" प्रकर्षेण आरब्धः प्रारब्धः "

अर्थात- अच्छी तरह से फल देने के लिए जिसका आरम्भ हो चुका है, वह ' प्रारब्ध ' हैं |

प्रारब्ध कर्मों का फल तो अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति के रुप में सामने आता हैं; परंतु इन प्रारब्ध कर्मों को भोगने के लिए प्राणियों की प्रवृति तीन प्रकार से होती हैं :

(१) स्वेच्छापूर्वक - इसमें मनुष्य प्रारब्ध फल भोग परिस्थिति सम्मुख आने पर स्वयं की इच्छा से चुनाव करने के प्रवृत हो कर परिणाम पाता हैं |

        उदाहरणार्थ -किसी व्यपारी ने माल खरीदा तो उस में उसे मुनाफा (लाभ) हो गया , ऐसे ही किसी दूसरे व्यापारी ने माल खरीदा तो उसमें घाटा (हानी) हो गया | यहां दोनों को मुनफा और घाटा तो उनके शुभ-अशुभ कर्मों से बने हुए प्रारब्ध के फल है ; परंतु माल खरीदनें में उनकी प्रवृति स्वेच्छापूर्वक हुई हैं |


(२) अनिच्छा-पूर्वक( दैवेच्छा-पूर्वक) - इसमें मनुष्य प्रारब्ध फल भोग परिस्थिति सम्मुख आने पर स्वयं की इच्छा से नहीं वरन् दैवेच्छा/संयोग से प्रवृत हो कर परिणाम पाता हैं |

         उदाहरणार्थ - कोई सज्जन कहीं से चल कर दूसरे गांव जा रहे थे कि राह में किसी पेड़ के नीचे धन की पोटली गिरी पड़ी मिली जो उन्होने काम में ले ली ; ऐसे ही दूसरे सज्जन कहीं जा रहे थे और उन पर पेड़ की डाल टूट कर गिर पड़ी और उन्हे चोट लगी | इन दोनों में धन का मिलना और चोट का लगना तो उनके शुभ-अशुभ कर्मों से बने प्रारब्ध के फल हैं , परंतु धन की पोटली मिलना और पेड़ की डाल गिरना - यह प्रवृति अनिच्छा (दैवेच्छा) पूर्वक हुई है |



(३) परेच्छापूर्वक - इसमें मनुष्य प्रारब्ध फल भोग परिस्थिति सम्मुख आने पर किसी अन्य प्राणी की इच्छा के कारण किये कार्य करने से प्रवृत हो कर परिणाम पाता हैं |

         उदाहरणार्थ - किसी धनी व्यक्ति ने किसी बालक को गोद लिया..जिससे सब धन उस बालक को विरासत में मिल गया | ऐसे ही किसी व्यक्ति का धन चोरों ने लूट लिया | यहां पर बालक को धन की प्राप्ति और व्यक्ति के धन का लुट जाना तो उनके शुभ-अशुभ कर्मों से बने हुए प्रारब्ध के फल हैं ; परंतु गोद में जाना और चोरी होना - यह प्रवृति परेच्छापूर्वक हुई हैं |



यहां यह स्पष्ट जान ले कि कर्म-फल (कर्मों का फल) 'कर्म' नहीं होते प्रत्युत 'परिस्थिति' होती हैं | अर्थात प्रारब्ध कर्मों का फल परिस्थिति-रुप में मिलता है/सम्मुख आता हैं |

अगर नये कर्म को (क्रियमाण) को प्रारब्ध का फल मानलिया जाये तो फिर " ऐसा करों ..वैसा मत करों ..आदि" गुरुओ व शास्त्रों के उपदेश व्यर्थ हो जाते हैं ; आवश्यकता पड़ेगी ही नहीं |

दूसरा नये कर्म मानने पर समान कर्मों का अंत कभी न होगा क्योंकि कर्म-फल का प्रारब्ध कर्म होने पर वही शुभ है तो शुभ कर्म लगातार.. और अशुभ है तो अशुभ कर्म लगातार.. चलेगे और मनुष्य जन्म दर जन्म कर्म विशेष करते चले जायेगें तो उन्नति/अवन्नति की स्थिति समाप्त.. यानि कर्म करने की छूट न होने से पापी तो कभी किसी भी जन्म में ऊपर हीं नहीं उठ सकेगें |

प्रारब्ध फल के दो भेद है जिनकी चर्चा अगले पत्र पोस्ट में करेंगे !


क्रमशः

वयं राष्ट्रे जागृयाम _चंशे-

!! जय श्री राम !!

Wednesday 13 November 2013

कर्म-रहस्य (४) * संचित-कर्म *


कर्म-रहस्य (४)
* संचित-कर्म *

अनेक मनुष्य-जन्मों में किये हुए जो कर्म (फल-अंश और संस्कार-अंश ) अंतःकरण में संगृहीत रहते हैं, वे " संचित कर्म " कहलाते हैं |

उनमें फल-अंश से तो 'प्रारब्ध' बनता हैं, और संस्कार-अंश से 'स्फुरणा' होती रहती है | उन स्फुरणाओं में भी वर्तमान में किये गये नये क्रियमाण-कर्म जो संचित में भरती हुए हैं, प्रायः उनकी स्फुरणा मुख्य रहती हैं | कभी-कभी संचित में संगृहीत पुराने कर्मों की भी स्फुरणा होजाती हैं |

फल-अंश से बने ' प्रारब्ध ' से हम सब थोड़ा बहुत परिचित है इसकी विस्तृत विवेचना आगे करेंगे ही, यहां "स्फुरणा" संभवतः बहुत से मित्रों के लिए नया शब्द होगा अतः इसे समझने का प्रयास करते हैं -

जैसे - किसी बर्तन में लहसुन डाल दे और उसके ऊपर चना, मूंग,बाजरा डाला जाये तो निकालते समय जो सबसे बाद में (ऊपर) बाजरा डाला था वही पहले निकलेगा मगर बीच में कभी-कभी लहसुन का भभका भी आ जायेगा..

यद्यपि ये दृष्टांत पूरा नहीं है, केवल समझने का प्रयास अंश मात्र हैं कि नये क्रियमाण कर्मों की स्फुरणा अधिक होती हैं और कभी-कभी पुराने कर्मों की भी स्फुरणा होती रहती हैं |

इसी तरह नींद आती हैं तो उसमें भी स्फुरणा होती हैं | नींद में जाग्रत-अवस्था के दब जाने से संचित कर्मों की वह संस्कार-अंश से बनी स्फुरणा स्वप्न-रुप से दीखने लगती हैं, इसी को स्वप्नावस्था कहते हैं | *

स्वप्नावस्था में बुद्धि की सावधानी न रहने से दृश्य क्रम, व्यतिक्रम और अनुक्रम ये नहीं रहते | जैसे शहर दिल्ली का दिख रहा है बाजार जयपुर का और दुकानें किसी तीसरी जगह की दीखती है, कोई जीवित मनुष्य दीख जाता हैं , तो कभी किसी मरें हुए आदमी से मिलना, बातचीत हो जाती हैं , आदि सब स्फुरणाओं का दृष्टांत है |

(*जाग्रत-अवस्था में भी जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों अवस्थाऐं होती हैं; जब हम सावधानी से कार्य करते हैं तो जाग्रत में जाग्रत-अवस्था, सावधानी से थोड़ा भी ध्यान बंटा की अचानक दूसरी स्फुरणा होने लगी हम कार्य स्थल से ख्यालों में अन्यत्र पहुंच चुके होते हैं, यही जाग्रत में स्वप्न-अवस्था हैं | जाग्रत-अवस्था में कभी-कभी कार्य करते हुए भी उस कार्य की तथा पूर्व कर्मों की कोई भी स्फुरणा नहीं रहती, वृति-रहित अवस्था हो जाती है, वह विलक्षण क्षण† जाग्रत में सुषुप्ति-अवस्था हैं |

कर्म करने का वेग अधिक रहने से जाग्रत में जाग्रत और स्वप्न अवस्थाऐ तो अक्सर होती रहती हैं पर जाग्रत में सुषुप्ति अवस्था बहुत कम होती हैं यह समाधि से भी विलक्षण हैं; क्योंकि यह स्वतः होती हैं † इसीलिए मैनें इस स्थिति के लिए "विलक्षण-क्षण" कहा हैं | अगर कोई साधक जाग्रत की स्वाभाविक सुषुप्ति को स्थाई बना ले तो उसका साधन बहुत तीव्र हो जायेगा ; क्योंकि जाग्रत-सुषुप्ति अवस्था में मनुष्य का परमात्मा के साथ निवारणरुप से स्वतः संबंध होता हैं | जबकि 'समाधि में अभ्यास द्वारा वृतियों को एकाग्र तथा निरुद्ध करना पड़ता है | समाधि में पुरुषार्थ के दृढ़ निश्चय और सुयोग्य गुरु की कृपा से शरीर में स्थित होती हैं |

खैर वैसे तो निंद्रा सुषुप्ति अवस्थाओं में मनुष्य का संसार से संबंध टूट जाता हैं ; परंतु बुद्धि-वृति अज्ञान में लीन होने से स्वरुप का स्पष्ट अनुभव नहीं होता मगर जाग्रत-सुषुप्ति में बुद्धि जाग्रत रहने से स्वरुप का अनुभव होता हैं | )

जाग्रत-अवस्था में हरेक मनुष्य के मन में अनेक तरह की स्फुरणाएँ होती रहती हैं |

जब जाग्रत-अवस्था में शरीर, इंद्रियों और मन पर से बुद्धि का अधिकार हट जाता हैं, तब मनुष्य जैसा मन में आता हैं वैसा ही बोलनेे लगता हैं | इस तरह उचित-अनुचित का विचार शक्ति काम न करने से वह 'सीधा-सरल पागल' कहलाता हैं |

परंतु जिसके शरीर,इंद्रियों और मन पर बुद्धि का अधिकार रहता है, वह जो उचित समझता हैं वैसा बोलता हैं और जो अनुचित समझता है , वह नहीं बोलता | बुद्धि सावधान रहने से वह सावचेत रहता हैं, इसलिए 'चतुर पागल' हैं !

इस प्रकार मनुष्य जब तक स्वरुप / परमात्म की प्राप्ति नहीं कर लेता स्फुरणाओं से स्वंय को बचा नहीं सकता | परमात्म- प्राप्ति होने पर बुरी स्फुरणाऐं सर्वथा मिट जाती हैं | इसीलिए जीवन्मुक्त महापुरुष के मन में अपवित्र बुरे विचार कभी आते ही नहीं |

अगर उसके कथित शरीर में प्रारब्धवश (व्याधि रोग आदि किसी कारण) कभी बेहोशी,उन्माद आदि हो जात है तो उस अवस्था में भी वह न तो शास्त्र निषिद्ध बोलता हैं, और न ही शास्त्र निषिद्ध कुछ करता है | क्योंकि अंतःकरण शुद्ध हो जाने से शास्त्र-निषिद्ध बोलना या करना उसके स्वभाव में नहीं रहता |

यहां संचित कर्मों एवं क्रियमाण कर्मों के संस्कार-अंश से उत्पन्न " स्फुरणाओं" का बहुत महत्वपूर्ण असर आगे होने वाले कर्मों में अनायास शुभ-अशुभ कर्म के रुप में होता है जिनकी शुद्धि करना भी मनुष्य जीवन का लक्ष्य हैं |