Pages

Saturday 16 November 2013

* कर्म-रहस्य * (समापन-सत्र)

* कर्म-रहस्य *
(समापन-सत्र)


 प्रारब्ध कर्म से मिलने वाले फल के दो भेद हैं -
(१) प्राप्त फल और (२) अप्राप्त फल
वर्तमान में प्राणियों के सामने जो अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति आ रही हैं, वह ' प्राप्त ' फल हैं | और इसी जन्म में जो अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति भविष्य में आने वाली हैं, वह ' अप्राप्त ' फल हैं |

क्रियमाण कर्मों का फल-अंश जब तक संचित में जमा रहता हैं, वही प्रारब्ध बन कर अनुकूल, प्रतिकूल और मिश्रित परिस्थितियों के रुप में मनुष्य के सामने आता हैं | अतः जबतक संचित कर्म रहते हैं, तबतक प्रारब्ध बनता ही रहता हैं और प्रारब्ध परिस्थितियों के रुप में परीणित होता रहता हैं |

यह परिस्थिति मनुष्य को सुखी-दुःखी होने के लिए बाध्य नहीं करती | सुखी-दुःखी होने में तो परिवर्तनशील परिस्थिति के साथ संबध जोड़ना ही मुख्य कारण हैं |

परिस्थिति के साथ संबंध जोडने अथवा न जोड़ने में मनुष्य सर्वथा स्वाधीन हैं, पराधीन नहीं हैं | जो परिवर्तनशील परिस्थिति के साथ अपना संबंध मान लेता हैं, वह अविवेकी पुरुष तो सुखी-दुःखी होता ही रहता हैं | परंतु जो परिस्थिति के साथ संबंध नहीं मानता, वह विवेकी पुरुष कभी सुखी-दुःखी नहीं होता ; अतः उसकी स्थिति स्वतः साम्यावस्था में होती हैं, जो कि उसका स्वरूप हैं |

यही मनुष्य जन्म का लक्ष्य भी हैं ..कि सत्य की प्राप्ति और सहज कर्म-बंधन काटते हुए क्रमशः मोक्ष अवस्था तक पहुँचना |

जय श्री राम !! मित्रों कर्म-रहस्य के इस पत्र पोस्ट श्रंखला को यही विराम दे रहा हूँ ,बहुत गंभीर और अंनंत समय तक चर्चा न करते हुए एक प्रश्नोंत्तर से इसे पूर्ण करते हैं -

प्रश्न - कर्मों में मनुष्य के 'प्रारब्ध' की प्रधानता हैं या 'पुरुषार्थ' की ?
अर्थात प्रारब्ध बलवान या पुरुषार्थ बलवान ?

उत्तर - इस विषय में बहुत सी शंकाएँ हुआ करती हैं अतः इस प्रश्न के समाधान के लिए यह समझ लेना आवश्य हैं कि मनुष्य की चार तरह की चाहना ( ईच्छाऐं) होती हैं -
(१) धन /अर्थ की (२) धर्म /ज्ञान की (३) काम /भोग की (४) मोक्ष /मुक्ति की
इन चारों में 'अर्थ' (धन) और 'काम'(भोग) की प्राप्ति में "प्रारब्ध" की प्रधानता होती हैं और पुरुषार्थ की गौणता हैं, तथा 'धर्म'(ज्ञान) और 'मोक्ष'(मुक्ति) में "पुरुषार्थ" की प्रधानता होती हैं एवं प्रारब्ध की गौणता हैं |

प्रारब्ध और पुरुषार्थ दोनों का क्षैत्र अलग-अलग हैं और दोनों ही अपने-अपने क्षैत्र में प्रधान या बलवान हैं |

इसीलिए कहा हैं -
" संतोषस्रिषु कर्तव्य: स्वदारे भोजने धने |
त्रिषु चैव न कर्तव्यः स्वध्याये जपदानयों || "

आशा हैं सभी मित्रों को कर्म संबंधी ज्ञान व गीता के उपदेश का अर्थ महत्व व भाव समझ आये होगे !!

हम सब कर्म योग के द्वारा अपना व देश का हित करते चलें ..

वयं राष्ट्रे जागृयाम _चंशे-

!! जय श्री राम !!

Friday 15 November 2013

कर्म-रहस्य (५) * प्रारब्ध *




कर्म-रहस्य (५)
* प्रारब्ध *


संचित कर्मों में जो कर्म-फल देने को सम्मुख होते है, उन कर्मों को प्रारब्ध कर्म कहते हैं |

" प्रकर्षेण आरब्धः प्रारब्धः "

अर्थात- अच्छी तरह से फल देने के लिए जिसका आरम्भ हो चुका है, वह ' प्रारब्ध ' हैं |

प्रारब्ध कर्मों का फल तो अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति के रुप में सामने आता हैं; परंतु इन प्रारब्ध कर्मों को भोगने के लिए प्राणियों की प्रवृति तीन प्रकार से होती हैं :

(१) स्वेच्छापूर्वक - इसमें मनुष्य प्रारब्ध फल भोग परिस्थिति सम्मुख आने पर स्वयं की इच्छा से चुनाव करने के प्रवृत हो कर परिणाम पाता हैं |

        उदाहरणार्थ -किसी व्यपारी ने माल खरीदा तो उस में उसे मुनाफा (लाभ) हो गया , ऐसे ही किसी दूसरे व्यापारी ने माल खरीदा तो उसमें घाटा (हानी) हो गया | यहां दोनों को मुनफा और घाटा तो उनके शुभ-अशुभ कर्मों से बने हुए प्रारब्ध के फल है ; परंतु माल खरीदनें में उनकी प्रवृति स्वेच्छापूर्वक हुई हैं |


(२) अनिच्छा-पूर्वक( दैवेच्छा-पूर्वक) - इसमें मनुष्य प्रारब्ध फल भोग परिस्थिति सम्मुख आने पर स्वयं की इच्छा से नहीं वरन् दैवेच्छा/संयोग से प्रवृत हो कर परिणाम पाता हैं |

         उदाहरणार्थ - कोई सज्जन कहीं से चल कर दूसरे गांव जा रहे थे कि राह में किसी पेड़ के नीचे धन की पोटली गिरी पड़ी मिली जो उन्होने काम में ले ली ; ऐसे ही दूसरे सज्जन कहीं जा रहे थे और उन पर पेड़ की डाल टूट कर गिर पड़ी और उन्हे चोट लगी | इन दोनों में धन का मिलना और चोट का लगना तो उनके शुभ-अशुभ कर्मों से बने प्रारब्ध के फल हैं , परंतु धन की पोटली मिलना और पेड़ की डाल गिरना - यह प्रवृति अनिच्छा (दैवेच्छा) पूर्वक हुई है |



(३) परेच्छापूर्वक - इसमें मनुष्य प्रारब्ध फल भोग परिस्थिति सम्मुख आने पर किसी अन्य प्राणी की इच्छा के कारण किये कार्य करने से प्रवृत हो कर परिणाम पाता हैं |

         उदाहरणार्थ - किसी धनी व्यक्ति ने किसी बालक को गोद लिया..जिससे सब धन उस बालक को विरासत में मिल गया | ऐसे ही किसी व्यक्ति का धन चोरों ने लूट लिया | यहां पर बालक को धन की प्राप्ति और व्यक्ति के धन का लुट जाना तो उनके शुभ-अशुभ कर्मों से बने हुए प्रारब्ध के फल हैं ; परंतु गोद में जाना और चोरी होना - यह प्रवृति परेच्छापूर्वक हुई हैं |



यहां यह स्पष्ट जान ले कि कर्म-फल (कर्मों का फल) 'कर्म' नहीं होते प्रत्युत 'परिस्थिति' होती हैं | अर्थात प्रारब्ध कर्मों का फल परिस्थिति-रुप में मिलता है/सम्मुख आता हैं |

अगर नये कर्म को (क्रियमाण) को प्रारब्ध का फल मानलिया जाये तो फिर " ऐसा करों ..वैसा मत करों ..आदि" गुरुओ व शास्त्रों के उपदेश व्यर्थ हो जाते हैं ; आवश्यकता पड़ेगी ही नहीं |

दूसरा नये कर्म मानने पर समान कर्मों का अंत कभी न होगा क्योंकि कर्म-फल का प्रारब्ध कर्म होने पर वही शुभ है तो शुभ कर्म लगातार.. और अशुभ है तो अशुभ कर्म लगातार.. चलेगे और मनुष्य जन्म दर जन्म कर्म विशेष करते चले जायेगें तो उन्नति/अवन्नति की स्थिति समाप्त.. यानि कर्म करने की छूट न होने से पापी तो कभी किसी भी जन्म में ऊपर हीं नहीं उठ सकेगें |

प्रारब्ध फल के दो भेद है जिनकी चर्चा अगले पत्र पोस्ट में करेंगे !


क्रमशः

वयं राष्ट्रे जागृयाम _चंशे-

!! जय श्री राम !!

Wednesday 13 November 2013

कर्म-रहस्य (४) * संचित-कर्म *


कर्म-रहस्य (४)
* संचित-कर्म *

अनेक मनुष्य-जन्मों में किये हुए जो कर्म (फल-अंश और संस्कार-अंश ) अंतःकरण में संगृहीत रहते हैं, वे " संचित कर्म " कहलाते हैं |

उनमें फल-अंश से तो 'प्रारब्ध' बनता हैं, और संस्कार-अंश से 'स्फुरणा' होती रहती है | उन स्फुरणाओं में भी वर्तमान में किये गये नये क्रियमाण-कर्म जो संचित में भरती हुए हैं, प्रायः उनकी स्फुरणा मुख्य रहती हैं | कभी-कभी संचित में संगृहीत पुराने कर्मों की भी स्फुरणा होजाती हैं |

फल-अंश से बने ' प्रारब्ध ' से हम सब थोड़ा बहुत परिचित है इसकी विस्तृत विवेचना आगे करेंगे ही, यहां "स्फुरणा" संभवतः बहुत से मित्रों के लिए नया शब्द होगा अतः इसे समझने का प्रयास करते हैं -

जैसे - किसी बर्तन में लहसुन डाल दे और उसके ऊपर चना, मूंग,बाजरा डाला जाये तो निकालते समय जो सबसे बाद में (ऊपर) बाजरा डाला था वही पहले निकलेगा मगर बीच में कभी-कभी लहसुन का भभका भी आ जायेगा..

यद्यपि ये दृष्टांत पूरा नहीं है, केवल समझने का प्रयास अंश मात्र हैं कि नये क्रियमाण कर्मों की स्फुरणा अधिक होती हैं और कभी-कभी पुराने कर्मों की भी स्फुरणा होती रहती हैं |

इसी तरह नींद आती हैं तो उसमें भी स्फुरणा होती हैं | नींद में जाग्रत-अवस्था के दब जाने से संचित कर्मों की वह संस्कार-अंश से बनी स्फुरणा स्वप्न-रुप से दीखने लगती हैं, इसी को स्वप्नावस्था कहते हैं | *

स्वप्नावस्था में बुद्धि की सावधानी न रहने से दृश्य क्रम, व्यतिक्रम और अनुक्रम ये नहीं रहते | जैसे शहर दिल्ली का दिख रहा है बाजार जयपुर का और दुकानें किसी तीसरी जगह की दीखती है, कोई जीवित मनुष्य दीख जाता हैं , तो कभी किसी मरें हुए आदमी से मिलना, बातचीत हो जाती हैं , आदि सब स्फुरणाओं का दृष्टांत है |

(*जाग्रत-अवस्था में भी जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों अवस्थाऐं होती हैं; जब हम सावधानी से कार्य करते हैं तो जाग्रत में जाग्रत-अवस्था, सावधानी से थोड़ा भी ध्यान बंटा की अचानक दूसरी स्फुरणा होने लगी हम कार्य स्थल से ख्यालों में अन्यत्र पहुंच चुके होते हैं, यही जाग्रत में स्वप्न-अवस्था हैं | जाग्रत-अवस्था में कभी-कभी कार्य करते हुए भी उस कार्य की तथा पूर्व कर्मों की कोई भी स्फुरणा नहीं रहती, वृति-रहित अवस्था हो जाती है, वह विलक्षण क्षण† जाग्रत में सुषुप्ति-अवस्था हैं |

कर्म करने का वेग अधिक रहने से जाग्रत में जाग्रत और स्वप्न अवस्थाऐ तो अक्सर होती रहती हैं पर जाग्रत में सुषुप्ति अवस्था बहुत कम होती हैं यह समाधि से भी विलक्षण हैं; क्योंकि यह स्वतः होती हैं † इसीलिए मैनें इस स्थिति के लिए "विलक्षण-क्षण" कहा हैं | अगर कोई साधक जाग्रत की स्वाभाविक सुषुप्ति को स्थाई बना ले तो उसका साधन बहुत तीव्र हो जायेगा ; क्योंकि जाग्रत-सुषुप्ति अवस्था में मनुष्य का परमात्मा के साथ निवारणरुप से स्वतः संबंध होता हैं | जबकि 'समाधि में अभ्यास द्वारा वृतियों को एकाग्र तथा निरुद्ध करना पड़ता है | समाधि में पुरुषार्थ के दृढ़ निश्चय और सुयोग्य गुरु की कृपा से शरीर में स्थित होती हैं |

खैर वैसे तो निंद्रा सुषुप्ति अवस्थाओं में मनुष्य का संसार से संबंध टूट जाता हैं ; परंतु बुद्धि-वृति अज्ञान में लीन होने से स्वरुप का स्पष्ट अनुभव नहीं होता मगर जाग्रत-सुषुप्ति में बुद्धि जाग्रत रहने से स्वरुप का अनुभव होता हैं | )

जाग्रत-अवस्था में हरेक मनुष्य के मन में अनेक तरह की स्फुरणाएँ होती रहती हैं |

जब जाग्रत-अवस्था में शरीर, इंद्रियों और मन पर से बुद्धि का अधिकार हट जाता हैं, तब मनुष्य जैसा मन में आता हैं वैसा ही बोलनेे लगता हैं | इस तरह उचित-अनुचित का विचार शक्ति काम न करने से वह 'सीधा-सरल पागल' कहलाता हैं |

परंतु जिसके शरीर,इंद्रियों और मन पर बुद्धि का अधिकार रहता है, वह जो उचित समझता हैं वैसा बोलता हैं और जो अनुचित समझता है , वह नहीं बोलता | बुद्धि सावधान रहने से वह सावचेत रहता हैं, इसलिए 'चतुर पागल' हैं !

इस प्रकार मनुष्य जब तक स्वरुप / परमात्म की प्राप्ति नहीं कर लेता स्फुरणाओं से स्वंय को बचा नहीं सकता | परमात्म- प्राप्ति होने पर बुरी स्फुरणाऐं सर्वथा मिट जाती हैं | इसीलिए जीवन्मुक्त महापुरुष के मन में अपवित्र बुरे विचार कभी आते ही नहीं |

अगर उसके कथित शरीर में प्रारब्धवश (व्याधि रोग आदि किसी कारण) कभी बेहोशी,उन्माद आदि हो जात है तो उस अवस्था में भी वह न तो शास्त्र निषिद्ध बोलता हैं, और न ही शास्त्र निषिद्ध कुछ करता है | क्योंकि अंतःकरण शुद्ध हो जाने से शास्त्र-निषिद्ध बोलना या करना उसके स्वभाव में नहीं रहता |

यहां संचित कर्मों एवं क्रियमाण कर्मों के संस्कार-अंश से उत्पन्न " स्फुरणाओं" का बहुत महत्वपूर्ण असर आगे होने वाले कर्मों में अनायास शुभ-अशुभ कर्म के रुप में होता है जिनकी शुद्धि करना भी मनुष्य जीवन का लक्ष्य हैं | 


Tuesday 12 November 2013

कर्म-रहस्य.. (३) * क्रियमाण-कर्म *




कर्म-रहस्य (३)
* क्रियमाण-कर्म *
(संस्कार-अंश)


कोई भी नया कर्म करते समय मन, चित्त और मस्तिष्क पर इसकी एक बीज रुप में छाप सी रह जाती हैं जो "संस्कार" के नाम से जाना जाता हैं |

यह संस्कार ही आदत, स्वभाव या प्रकृति बन कर अगले कर्मों का कारण भी बनता हैं |

क्रियमाण-कर्म के "संस्कार-अंश" के भी दो भेद हैं - 'शुद्ध एवं पवित्र संस्कार' और 'अशुद्ध एवं अपवित्र संस्कार' | 
शास्त्र-विहित कर्म करने से जो संस्कार पड़ते है, वे शुद्ध और पवित्र होते हैं और शास्त्र, नीति, लोक मर्यादा के विरुद्ध कर्म करने से जो संस्कार पड़ते हैं, वे अशुद्ध एवं अपवित्र होते हैं |

इन दोनों शुद्ध और अशुद्ध संस्कारों को लेकर स्वभाव (प्रकृति, आदत) बनता है | इन संस्कारों में से अशुद्ध अंश का सर्वथा नाश करने पर स्वभाव शुद्ध, निर्मल पवित्र हो जाता हैं ; परंतु जिन पूर्वकृत कर्मों से स्वभाव बना है, उन कर्मों की भिन्नता के कारण जीवन्मुक्त पुरुषों के स्वभावों में भी भिन्नता रहती हैं | इन विभिन्न स्वभावों के कारण ही उनके कर्मों में भी भिन्नता होती हैं, पर वे कर्म दोषी नहीं होते, प्रत्युत सर्वथा शुद्ध होते हैं और उन कर्मों से जन-कल्याण होते हैं |

संस्कार-अंश से जो स्वभाव बनता हैं, वह एक दृष्टि से महान प्रबल होता हैं - "स्वभावो मूर्ध्नि वर्तते" अतः उसे मिटाया नहीं जा सकता |

प्रसिद्ध श्लोक हैकि -

" व्याघ्रस्तुष्यति कानने सुगहनां सिंहो गुहा सेवते, हंसो वाञ्छति पद्मिनीं कुसुमितां गृध्रः श्मशाने स्थले |
साधुः सत्कृतिसाधुमेव भजते नीचोअपि नीचं जनं, या यस्य प्रकृतिः स्वभावजनिता केनापि न त्यज्यते ||"

इसी प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्णो का जो स्वभाव है, उसमें कर्म करने की मुख्यता रहती हैं | इसीलिए भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है कि जिस कर्म को तू मोहवश नहीं करना चाहता, उसको भी अपने स्वाभाविक कर्म से बँधा हुआ परवश हो कर करेगा ! (गीता)



अब इसमें विचारणीय बात है कि :-
एक ओर तो स्वभाव की महान् प्रबलता जिसे कोई छोड़ ही नहीं सकता, और दूसरी ओर मनुष्य-जन्म की महान् प्रबलता कि मनुष्य सब कुछ करने में स्वतंत्र हैं | अतः इन दोनों में किस की विजय होगी और किस की पराजय होगी ? 

इसमें विजय-पराजय की बात नहीं है , अपनी-अपनी जगह दोनों ही प्रबल है |

जहां स्वभाव की बात है जिस जाति में जीव जन्मा है, जैसा वर्ण का रज-वीर्य था, उसके अनुसार बना हुआ जो स्वभाव है , उसे कोई बदल नहीं सकता ; अतः मनुष्य स्वभाव दोषी नहीं है, निर्दोष है | जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्णों का जो स्वभाव है, वह स्वभाव नहीं बदल सकता और उसे बदलने की आवश्यकता भी नहीं है … और इसे बदलने के लिए शास्त्र भी नहीं कहता |

परंतु उस स्वभाव में जो अशुद्ध-अंश (राग-द्वेष )हैं, उसको मिटाने की सामर्थ्य ईश्वर ने मनुष्य को दी हैं | 

अतः जिन अशुद्ध संस्कार-अंश के दोषों से मनुष्य का स्वभाव अशुद्ध बना है, उन दोषों को मिटाकर मनुष्य स्वतंत्रता पूर्वक अपने स्वभाव को शुद्ध बना सकता है | 

मनुष्य चाहे तो कर्मयोग की दृष्टि से अपने प्रयत्न से राग-द्वेष मिटाकर स्वभाव शुद्ध बना ले, चाहे भक्तियोग की दृष्टि से सर्वथा भगवान् के शरण होकर अपना स्वभाव शुद्ध बना ले अथवा ज्ञानयोग से भी.. (गीता) इस प्रकार प्रकृति (स्वभाव) की प्रबलता भी सिद्ध हो गई और मनुष्य सब कुछ करने मे स्वतंत्र है यह भी सिद्ध हो गया | 

सारांश - शुद्ध स्वभाव को रखने में प्रकृति की प्रबलता है और अशुद्ध स्वभाव को मिटाने में मनुष्य की स्वतंत्रता हैं |

क्रमशः

वयं राष्ट्रे जागृयाम _चंशे-

!! जय श्री राम !!

Monday 11 November 2013

कर्म-रहस्य ..(२)



कर्म-रहस्य ..(२)

* क्रियमाण कर्म * ( फल-अंश )

क्रियमाण कर्म दो तरह के होते है - शुभ और अशुभ | वेद के अनुसार शास्त्रोक्त कर्म ' शुभकर्म ' और काम, क्रोध, लोभ, आसक्ति आदि को लेकर जो वेद विरूद्ध शास्त्र-निषिद्ध कर्म किये जाते है, वे ' अशुभकर्म ' कहलाते है |

शुभ (अच्छे) अथवा अशुभ (बुरे) प्रत्येक क्रियमाण कर्म का एक तो फल-अंश बनता है और एक संस्कार-अंश बनता है | ये दोनों भिन्न-भिन्न है|

क्रियमाण कर्म के फल-अंश के भी दो भेद है - दृष्ट और अदृष्ट | इनमें दृष्ट के पुनः दो भेद है - तात्कालिक और कालान्तरिक | इन नामो से क्रियमाण कर्म फल-अंश स्पष्ट है, उदाहरणार्थ - अच्छा भोजन करते हुए जो रस(स्वाद) आता है, सुख व प्रसन्नता होती है और तृप्ति होती है - यह दृष्ट का 'तात्कालिक' फल है और भोजन करने के परिणाम में आयु, बल, आरोग्य आदि का बढ़ना - यह दृष्ट का 'कालान्तरिक' फल है |

ऐसे ही जिसका अधिक मिर्च मसाले दार खाने का स्वभाव है, वह इन्हे खा कर सुखी तो होता और तेज मिर्च के कारण मुहँ मे जीभ मे जलन, आँखों व नाक से पानी निकलना पसीना आना ये दृष्ट के 'तात्कालिक' फल है और कुपथ्य के कारण परिणाम में पेट में जलन दस्त और रोग, दुःख आदि का होना - यह दृष्ट का 'कालान्तरिक' फल है |

इसी प्रकार अदृष्ट के भी दो भेद है - लौकिक और पारलौकिक |
जीते जी फल मिल जाये इस भाव से यज्ञ, दान, तप, व्रत, मंत्र-जप आदि शुभ कर्मोंको विधि-विधान से किया जाये और उनका प्रबल प्रतिबंध न हो तो यहाँ धरती पर पुत्र, धन, मान ( यश ) आदि की प्राप्ति होना और रोग, निर्धनता, आदि प्रतिकूल की निवृति होना - ये अदृष्ट का 'लौकिक' फल है | *

और मरने के बाद सदगति हो इस भाव से यज्ञादि दान तप किये जाये तो मृत्यु उपरान्त उच्च लोको की प्राप्ति होना - ये अदृष्ट का ' पारलौकिक' फल है |

इसी तरह चोरी, डाका, हत्या आदि अशुभ कर्मों का फल यहाँ धरती पर कैद, जुर्माना, फांसी आदि होना - ये अदृष्ट का 'लौकिक' फल है , और पाप कर्मो के कारण मृत्यु उपरान्त निम्न लोकों मे जाना, कीट पंतगे , पशु पक्षी बनना - यह अदृष्ट का 'पारलौकिक' फल है |*

* यहां दृष्ट का 'तात्कालिक' और अदृष्ट का 'लौकिक' फल एक समान ही लगते है, मगर दोनों में अंतर है कि - 'तात्कालिक' फल सीधे मिलता है , प्रारब्ध बन कर नहीं ; परंतु जो 'लौकिक' फल है वह प्रारब्ध बनकर भी मिलता है! ऐसा ही 'कालान्तरिक' व ' पारलौकिक' के लिए समझना !!

क्रमशः

वयं राष्ट्रे जागृयाम _चंशे-

!! जय श्री राम !!

Sunday 10 November 2013

कर्म-रहस्य ... (१)



* कर्म के प्रकार *

कर्म रहस्य में हमने कर्म की परिभाषा जानी , एवं अकर्म का परिचय भी जाना ! अकर्म उच्च अवस्था में पहुंचे स्वरुप में स्थित महापुरुष के क्षैत्र की बात है| क्यों की वे स्वयं फल के लिए नहीं करते लोक शिक्षण व परोपकार के निमित्त करते है |

सामान्य मनुष्य कर्म ही करते है जिनका फल मिलना निश्चित है | अतः यहां कर्म की चर्चा करेगे, कर्म तीन प्रकार के होते है :-

क्रियमाण, संचित और प्रारब्ध |

अभी वर्तमान में जो कर्म किये जाते है, वे ' क्रियमाण ' कर्म कहलाते है | वर्तमान से पहले इस जन्म में या पूर्व के अनेक मनुष्यजन्मों में किये हुए कर्म जो संगृहित है, वे ' संचित ' कर्म कहलाते है |

संचित कर्मों में जो कर्म फल देने के लिए प्रस्तुत (उन्मुख) हो गये है अर्थात जन्म, आयु,अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति के रुप में परिणाम देने के लिए समक्ष आ गये है, वे ' प्रारब्ध ' कर्म कहलाते है |

मित्रों कर्म रहस्य लम्बा ओर जटिल विषय है अतः उक्त कर्मों का एक एक करके हम अगले पत्रों (पोस्टो )में विवेचन करेंगे | 

आप सबके सहयोग की आशा है !

सभी विद्वान मित्रों एवं अन्य पाठकों के उचित एवं विषय अनुकूल सुझावो का सदैव हार्दिक स्वागत है!

वयं राष्ट्रे जागृयाम _चंशे-

!! जय श्री राम !!

Friday 8 November 2013

कर्म - रहस्य (भूमिका)






* कर्म - रहस्य *
(कर्म और अकर्म )


पुरुष और प्रकृति - ये दो है |
पुरुष में कभी परिवर्तन नहीं होता , जबकि प्रकृति कभी परिवर्तनरहित नहीं होती |

जब यह पुरुष प्रकृति के साथ संबंध जोड़ लेता हैं, तब प्रकृति की क्रिया पुरुष का " कर्म " बन जाती हैं |
क्योंकि प्रकृति के साथ संबंध मानने से तादात्म्य हो जाता हैं | तादात्म्य होने से जो प्राकृत वस्तुएँ प्राप्त है,उनमें ममता होती हैं और उस ममता के कारण अन्य अप्राप्त वस्तुओं की कामना होती है |

इस प्रकार जब तक कामना, ममता और तादात्म्य रहता हैं, तब तक परिवर्तन रुप क्रिया होती हैं , उसका नाम " कर्म " है |
(इस से कर्म फल-जनकता रहती है |)

तादात्म्य टूटने पर वही कर्म पुरुष के लिए "अकर्म " हो जाता है अर्थात वह कर्म क्रियामात्र रह जाता है, उसमें फलजनकता नही रहती अतः यह ' कर्म में अकर्म ' है |

अकर्म - अवस्था में अर्थात स्वरुप का अनुभव होने पर उस महापुरुष के शरीर से जो क्रिया होती रहती है,
वह " अकर्म में कर्म " है |

श्री कृष्ण जी ने गीता में उपदेश दिया है
" कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः |
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत || " (गीता ४|१८)

(लेख के संदर्भित श्रोत - स्वामी रामसुखदास जी के प्रवचन है ) 

वयं राष्ट्रे जागृयाम _चंशे-
!! जय श्री राम !!

Thursday 7 November 2013

वेद, समाज और वर्ण (भाग - ३)


वेद, समाज और वर्ण (भाग - ३)

यहां यह ध्यातव्य हैं कि मनुस्मृति के आदिकाल में वर्ण-व्यवस्था जन्म के आधार पर न होकर कर्म के आधार पर थी | इसीलिए मनुस्मृति में कहा गया हैं -

" शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम् |
क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च || "
(मनु.१.१०)
ब्राह्मण वर्ण में पैदा होने वाला व्यक्ति भी यदि ब्राह्मण वर्ण के गुण, कर्म और स्वभाव वाला नहीं हैं तो वह शूद्र वर्ण में गिना जायेगा और शूद्र वर्ण में पैदा होने वाला व्यक्ति भी यदि ब्राह्मण के गुण, कर्म और स्वभाव को अपना लेता हैं तो वह ब्राह्मण में गिना जायेगा |

      वर्तमान में पशुपालन व कृषि कर्म वैश्य वर्ण नहीं करके समाज का अन्य वर्ण जो कृषक कहलाता है, करता हैं | इसका कारण हैं कि मध्यकालीन समाज में विभिन्न परिवर्तन हुये और कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था डगमगा कर जन्म आधारित वर्ण को रुढ़ीगत मान्यता मिल गई और फिर जाति-प्रथा का प्रचलन हुआ ... विभिन्न रजवाड़े और मठ-मंदिरो के वैभव विलास के चलते वंशानुगत उच्च जाति को अनेक सुविधा व मान के चलते दूसरे वर्णों को निम्न कोटी का घोषित कर छूआछूत तक समाज का पतन हो गया, श्रमजीवीयों को कत्तई अछूत घोषित कर शताधिक जातियों में विभक्त कर दिया गया -
जैसे दस्तकारी व शिल्प के काम करने वाले हाथ के कुशल व्यक्तियों को भी शूद्र वर्ण के अंतर्गत रख दिया गया |

       जबकी भवन,वाहन,अस्त्र-शस्त्र आदि के उत्तम उपयोग हेतु काष्ट,स्वर्ण,लौह,ताम्र आदि प्राकृतिक संपदा को मनुष्यों के लिये प्रयोग करने योग्य विभिन्न विधियों से गुजार कर इन के भौतिक व रासायनिक संघटन के पूर्ण ज्ञान को जानने वाला एक कुशल व बुद्धिमान व्यक्ति संपन्न कर सकता हैं .. अत: इन्ह शूद्र वर्ण में रखने से भी भारत के पतन का मार्ग खुल गया | आज आधुनिक अविष्कारों में पश्चिम के लोगों को श्रेय जाता हैं क्योंकि वे अपने तकनीकी कार्यो को करने वाले को हेय दृष्टी से नहीं वरन् सम्मान से देखते हैं |

      खैर.. अब समाज में पुन: विलुप्त प्राय: वैदिक ज्ञान के लिये अनेक संस्कृत के विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय तथा गुरुकुल स्थापित हो रहे हैं | इनमें प्रबुद्ध आचार्य हमारे प्रमाणिक ग्रंथो के अनुकूल शिक्षा देगें अत: आशा हैं इनसे ज्ञान प्राप्त कर निकलने वाले नागरिक पुन: समाज में असमानता समाप्त कर सभी वर्णों को वेद सम्मत समान आदर भाव देगें ताकि हम सब एक हो एवँ मिलकर भारतराष्ट्र रुपी शरीर को स्वस्थ व पुष्ट कर विश्व में गरिमा पूर्ण स्थान दिला सके !

                                                                                  '' समाप्त ''
सभी मित्रों को शुभकामनाऐं !
-वयं राष्ट्रे जागृयाम_चंशे-
!! जय श्री राम !!

Saturday 2 November 2013

वेद, समाज और वर्ण (भाग-२)


 वेद, समाज और वर्ण (भाग-२) 

   वैदिक काल की समूची समाज व्यवस्था, शासन व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था, तथा अन्य सभी प्रकार की व्यवस्थाओ का सम्रग निरुपण करने वाला प्रमाणिक ग्रंथ " मनुस्मृति " माना गया हैं | मनुस्मृति में इन चारो वर्णों के कार्य विभाजन निम्न प्रकार से हैं -

ब्राह्मण के कार्य इस श्लोक द्वारा दिये गये हैं, 
" अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा |
दानप्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणामकल्पमत् || "
( मनु.१.८८)
अर्थात ब्राह्मणवर्ण का समाज में कार्य है - अध्ययन करना, अध्यापन करना, यज्ञ करना, यज्ञ करवाना, दान लेना और दान देना | यह ब्राह्मण वर्ण बुद्धिजीवी वर्ग कहा जा सकता हैं |

क्षत्रिय वर्ण के कार्यो का मनुस्मृति में निम्न श्लोक से निरुपण किया गया हैं-
" प्रज्ञानां रक्षणं दानमिज्या$ध्ययनमेव च |
विषमेष्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासत: || "
(मनु.१.८९)
क्षत्रियो का कार्य संक्षेप में यह हैं कि वह प्रजाओ , समाज व राष्ट्र की अंदर और बाहर से रक्षा करे, यज्ञ ( धार्मिक अनुष्ठान ) करे , अध्ययन (शिक्षा ग्रहण) करे और विषय (भोग विलास) में आसक्त न हो ताकी शत्रु उसे अभिभूत न कर सके और वह रक्षा कार्य में सजग रहे |

वैश्य वर्ण का कार्य निम्न श्लोक में हैं -
" पशुनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च |
वणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेव च || "
(मनु.१.९०)
वैश्य वर्ण के कार्य हैं - पशुपालन, दान देना, यज्ञ करना ( धार्मिक अनुष्ठान ) यजन करना (शिक्षा ग्रहण करना) , वाणिज्य ( व्यापार) ब्याज पर पैसा देना और कृषि कार्य करना |

शूद्र वर्ण के कार्य मनुस्मृति में निम्न श्लोक से दिये हैं -
" एकमेव तु शूद्रस्य प्रभु: कर्म समादिशत् |
एतेषामेव वर्णानां शुश्रूषामनसूयया || "
( मनु.१.९१ )
शूद्र वर्ण का काम हैं कि उपर्युक्त तीनो के जो कार्य कहे हैं उन कार्यो को करने में वह असमर्थ हैं तो इनके कार्यो में सहायक के रूप में सेवा कर करके अपनी आजीविका करें |

                                                                                                         क्रमश:
-वंय राष्ट्रे जागृयाम_चंशे-
!! जय श्री राम !!

Friday 1 November 2013

वेद, समाज और वर्ण (भाग-१)


वेद, समाज और वर्ण - व्यवस्था (भाग - १)


समाज मनुष्यो का समूह होता हैं | एक स्वस्थ व्यक्ति को निजी कार्यो के लिये अन्य व्यक्ति की आवश्यकता नहीं होती | परंतु परिवार सहित जीवन निर्वाह के लिये अन्य व्यक्तियों पर निर्भर होना पड़ता हैं |
जैसे मकान बनवाना, वस्त्र बनाना, अन्न आदि उत्पन्न करना , पशुपालन करना, औषधि निर्माण व चिकित्सा जैसी मौलिक आवश्यकताओ के अतिरिक्त ज्ञान उपार्जन के साधन, तकनीकी वस्तुएँ यांत्रिक ज्ञान विज्ञान तथा शत्रुओं से रक्षा हेतु अस्त्र-शस्त्र एवँ आवागमन हेतु वाहन आदि भी उच्च स्तर की आवश्यकताऐ हैं जिनके लिये व्यक्ति को अन्य दूसरे बहुत से लोगो पर निर्भर रहना पड़ता हैं , जो विभिन्न स्थानो पर इन आवश्यकताओ की पूर्ति हेतु एक दूसरे के लिये अलग-अलग प्रकार के कार्य करते हैं |
उक्त अलग-अलग कार्यो को करने के लिये जो व्यक्ति अपने जीवन की किशोर या यौवन अवस्था में एक कार्य का चुनाव करता हैं या उसे जो कार्य करना पड़ता हैं, उस कार्य के चुनाव को " वर्ण " कहते हैं |
तथा भिन्न-भिन्न कार्यो का चुनाव या वर्ण को एक नियम या व्यवस्था के अंतर्गत बाँधने को " वर्ण-व्यवस्था " कहते है |


वेद विश्व का सबसे पुराना ग्रंथ हैं, और वैदिककालीन समाज भी इसीलिए विश्व भर में प्राचीनतम समाज हैं |


वैदिककालीन समाज में मनुष्य की जो मौलिक तथा उच्चतर आवश्यकताएँ जो भी थी वे या तो ज्ञानोपार्जन शिक्षा और तकनीकी व वैज्ञानिक शिक्षा की थी या दूसरी समाज व राष्ट्र में अंदर और बाहर के शत्रुओ से रक्षा करने की थी या तीसरी अर्थव्यवस्था को बनाये रखने के लिये कृषि, पशुपालन और व्यापार की थी या चौथे पूरे समाज की उपरोक्त तीनो कार्यो में विविध आवश्यकताओ में सहायता पूर्ति के लिये हाथ बंटाने हेतु परिश्रम करने अर्थात जो मनुष्य मानसिक स्तर पर तो नहीं मगर शारीरिक स्तर पर बलवान हो वाले व्यक्तियों की जो निर्देशानुसार कार्यो में सहायता कर सके
(unskilled workers ) की थी |


इन्ही चार प्रकार के कार्यो को वैदिक काल में चार वर्णो में बाँटा गया था , जिन्हे वेद में चार वर्ण कहा गया हैं , और इन चार प्रकार के कार्यकलाप करने वाले चार वर्ण के लोगो को क्रमश: "ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, तथा शूद्र " वर्ण के नाम से पुकारा गया |


वेद पूरे समाज को एक शरीर के रुप मे समझता और उपस्थित करता हैं | सर्वांगीण शरीर में मुख्यतः चार अंग हैं जिनका मुख्य कार्य भी चार प्रकार का होता है | एक सिर , मस्तिष्क या मुख , दूसरा बाहु या भुजायें , तीसरा उदर और चौथा पैर | मुख या मस्तिष्क शरीर में ज्ञान के आदान-प्रदान का काम करता है , बाहु या भुजाऐं शरीर के विभिन्न अंगो की आवश्यकता के अनुसार उस भोजन के सार को सारे शरीर में बिना किसी भेदभाव के वितरण करने का काम कर सकता है और पैर सारे शरीर को इधर उधर लाने ले जाने या श्रम करने का काम करते हैं |
शरीर के इन अंगों में कोई ऊँच नीच का भेदभाव नहीं है अपितु इन अंगों के काम करने का सामर्थ्य के अनुसार ये अंग अपना-अपना काम स्वयं करते हैं |
इसी प्रकार समाज भी एक सर्वांगीण शरीर के रूप में है और समाज में भी प्रमुख रूप में है और समाज में भी प्रमुख रूप से यही चार प्रकार के कार्यकलाप चलते हैं | इनमे ज्ञान के आदान-प्रदान का काम करने वाले वर्ण को ब्राह्मण, समाज और राष्ट्र की रक्षा करने वाले को क्षत्रिय , कृषि , पशुपालन और व्यापार आदि अर्थव्यवस्था संबंधी काम करने वाले को वैश्य और समाज की अन्य सभी प्रकार की आवश्यकताओ की पूर्त्यर्थ काम करने वाले मानववर्ण को शूद्र वर्ण से कहा गया है |
समाज की इसी व्यवस्था को ऋग्वेद के निम्नलिखित प्रसिद्ध मंत्र में यूँ निरूपित किया है :-

" ब्राह्मणो$श्य मुखमासीद बाहु राजन्य: कृत: |
उरु तदश्य यद्ववैश्य: पदभ्यां शूद्रो अजायत् || "

क्रमश:

(सन्दर्भ: सत्यार्थ-सौरभ से )
-वंय राष्ट्रे जागृयाम_चंशे-
!! जय श्री राम !!