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Friday 15 November 2013

कर्म-रहस्य (५) * प्रारब्ध *




कर्म-रहस्य (५)
* प्रारब्ध *


संचित कर्मों में जो कर्म-फल देने को सम्मुख होते है, उन कर्मों को प्रारब्ध कर्म कहते हैं |

" प्रकर्षेण आरब्धः प्रारब्धः "

अर्थात- अच्छी तरह से फल देने के लिए जिसका आरम्भ हो चुका है, वह ' प्रारब्ध ' हैं |

प्रारब्ध कर्मों का फल तो अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति के रुप में सामने आता हैं; परंतु इन प्रारब्ध कर्मों को भोगने के लिए प्राणियों की प्रवृति तीन प्रकार से होती हैं :

(१) स्वेच्छापूर्वक - इसमें मनुष्य प्रारब्ध फल भोग परिस्थिति सम्मुख आने पर स्वयं की इच्छा से चुनाव करने के प्रवृत हो कर परिणाम पाता हैं |

        उदाहरणार्थ -किसी व्यपारी ने माल खरीदा तो उस में उसे मुनाफा (लाभ) हो गया , ऐसे ही किसी दूसरे व्यापारी ने माल खरीदा तो उसमें घाटा (हानी) हो गया | यहां दोनों को मुनफा और घाटा तो उनके शुभ-अशुभ कर्मों से बने हुए प्रारब्ध के फल है ; परंतु माल खरीदनें में उनकी प्रवृति स्वेच्छापूर्वक हुई हैं |


(२) अनिच्छा-पूर्वक( दैवेच्छा-पूर्वक) - इसमें मनुष्य प्रारब्ध फल भोग परिस्थिति सम्मुख आने पर स्वयं की इच्छा से नहीं वरन् दैवेच्छा/संयोग से प्रवृत हो कर परिणाम पाता हैं |

         उदाहरणार्थ - कोई सज्जन कहीं से चल कर दूसरे गांव जा रहे थे कि राह में किसी पेड़ के नीचे धन की पोटली गिरी पड़ी मिली जो उन्होने काम में ले ली ; ऐसे ही दूसरे सज्जन कहीं जा रहे थे और उन पर पेड़ की डाल टूट कर गिर पड़ी और उन्हे चोट लगी | इन दोनों में धन का मिलना और चोट का लगना तो उनके शुभ-अशुभ कर्मों से बने प्रारब्ध के फल हैं , परंतु धन की पोटली मिलना और पेड़ की डाल गिरना - यह प्रवृति अनिच्छा (दैवेच्छा) पूर्वक हुई है |



(३) परेच्छापूर्वक - इसमें मनुष्य प्रारब्ध फल भोग परिस्थिति सम्मुख आने पर किसी अन्य प्राणी की इच्छा के कारण किये कार्य करने से प्रवृत हो कर परिणाम पाता हैं |

         उदाहरणार्थ - किसी धनी व्यक्ति ने किसी बालक को गोद लिया..जिससे सब धन उस बालक को विरासत में मिल गया | ऐसे ही किसी व्यक्ति का धन चोरों ने लूट लिया | यहां पर बालक को धन की प्राप्ति और व्यक्ति के धन का लुट जाना तो उनके शुभ-अशुभ कर्मों से बने हुए प्रारब्ध के फल हैं ; परंतु गोद में जाना और चोरी होना - यह प्रवृति परेच्छापूर्वक हुई हैं |



यहां यह स्पष्ट जान ले कि कर्म-फल (कर्मों का फल) 'कर्म' नहीं होते प्रत्युत 'परिस्थिति' होती हैं | अर्थात प्रारब्ध कर्मों का फल परिस्थिति-रुप में मिलता है/सम्मुख आता हैं |

अगर नये कर्म को (क्रियमाण) को प्रारब्ध का फल मानलिया जाये तो फिर " ऐसा करों ..वैसा मत करों ..आदि" गुरुओ व शास्त्रों के उपदेश व्यर्थ हो जाते हैं ; आवश्यकता पड़ेगी ही नहीं |

दूसरा नये कर्म मानने पर समान कर्मों का अंत कभी न होगा क्योंकि कर्म-फल का प्रारब्ध कर्म होने पर वही शुभ है तो शुभ कर्म लगातार.. और अशुभ है तो अशुभ कर्म लगातार.. चलेगे और मनुष्य जन्म दर जन्म कर्म विशेष करते चले जायेगें तो उन्नति/अवन्नति की स्थिति समाप्त.. यानि कर्म करने की छूट न होने से पापी तो कभी किसी भी जन्म में ऊपर हीं नहीं उठ सकेगें |

प्रारब्ध फल के दो भेद है जिनकी चर्चा अगले पत्र पोस्ट में करेंगे !


क्रमशः

वयं राष्ट्रे जागृयाम _चंशे-

!! जय श्री राम !!

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