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Saturday 16 November 2013

* कर्म-रहस्य * (समापन-सत्र)

* कर्म-रहस्य *
(समापन-सत्र)


 प्रारब्ध कर्म से मिलने वाले फल के दो भेद हैं -
(१) प्राप्त फल और (२) अप्राप्त फल
वर्तमान में प्राणियों के सामने जो अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति आ रही हैं, वह ' प्राप्त ' फल हैं | और इसी जन्म में जो अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति भविष्य में आने वाली हैं, वह ' अप्राप्त ' फल हैं |

क्रियमाण कर्मों का फल-अंश जब तक संचित में जमा रहता हैं, वही प्रारब्ध बन कर अनुकूल, प्रतिकूल और मिश्रित परिस्थितियों के रुप में मनुष्य के सामने आता हैं | अतः जबतक संचित कर्म रहते हैं, तबतक प्रारब्ध बनता ही रहता हैं और प्रारब्ध परिस्थितियों के रुप में परीणित होता रहता हैं |

यह परिस्थिति मनुष्य को सुखी-दुःखी होने के लिए बाध्य नहीं करती | सुखी-दुःखी होने में तो परिवर्तनशील परिस्थिति के साथ संबध जोड़ना ही मुख्य कारण हैं |

परिस्थिति के साथ संबंध जोडने अथवा न जोड़ने में मनुष्य सर्वथा स्वाधीन हैं, पराधीन नहीं हैं | जो परिवर्तनशील परिस्थिति के साथ अपना संबंध मान लेता हैं, वह अविवेकी पुरुष तो सुखी-दुःखी होता ही रहता हैं | परंतु जो परिस्थिति के साथ संबंध नहीं मानता, वह विवेकी पुरुष कभी सुखी-दुःखी नहीं होता ; अतः उसकी स्थिति स्वतः साम्यावस्था में होती हैं, जो कि उसका स्वरूप हैं |

यही मनुष्य जन्म का लक्ष्य भी हैं ..कि सत्य की प्राप्ति और सहज कर्म-बंधन काटते हुए क्रमशः मोक्ष अवस्था तक पहुँचना |

जय श्री राम !! मित्रों कर्म-रहस्य के इस पत्र पोस्ट श्रंखला को यही विराम दे रहा हूँ ,बहुत गंभीर और अंनंत समय तक चर्चा न करते हुए एक प्रश्नोंत्तर से इसे पूर्ण करते हैं -

प्रश्न - कर्मों में मनुष्य के 'प्रारब्ध' की प्रधानता हैं या 'पुरुषार्थ' की ?
अर्थात प्रारब्ध बलवान या पुरुषार्थ बलवान ?

उत्तर - इस विषय में बहुत सी शंकाएँ हुआ करती हैं अतः इस प्रश्न के समाधान के लिए यह समझ लेना आवश्य हैं कि मनुष्य की चार तरह की चाहना ( ईच्छाऐं) होती हैं -
(१) धन /अर्थ की (२) धर्म /ज्ञान की (३) काम /भोग की (४) मोक्ष /मुक्ति की
इन चारों में 'अर्थ' (धन) और 'काम'(भोग) की प्राप्ति में "प्रारब्ध" की प्रधानता होती हैं और पुरुषार्थ की गौणता हैं, तथा 'धर्म'(ज्ञान) और 'मोक्ष'(मुक्ति) में "पुरुषार्थ" की प्रधानता होती हैं एवं प्रारब्ध की गौणता हैं |

प्रारब्ध और पुरुषार्थ दोनों का क्षैत्र अलग-अलग हैं और दोनों ही अपने-अपने क्षैत्र में प्रधान या बलवान हैं |

इसीलिए कहा हैं -
" संतोषस्रिषु कर्तव्य: स्वदारे भोजने धने |
त्रिषु चैव न कर्तव्यः स्वध्याये जपदानयों || "

आशा हैं सभी मित्रों को कर्म संबंधी ज्ञान व गीता के उपदेश का अर्थ महत्व व भाव समझ आये होगे !!

हम सब कर्म योग के द्वारा अपना व देश का हित करते चलें ..

वयं राष्ट्रे जागृयाम _चंशे-

!! जय श्री राम !!

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