कर्म-रहस्य (४)
* संचित-कर्म *
अनेक मनुष्य-जन्मों में किये हुए जो कर्म (फल-अंश और संस्कार-अंश ) अंतःकरण में संगृहीत रहते हैं, वे " संचित कर्म " कहलाते हैं |
उनमें फल-अंश से तो 'प्रारब्ध' बनता हैं, और संस्कार-अंश से 'स्फुरणा' होती रहती है | उन स्फुरणाओं में भी वर्तमान में किये गये नये क्रियमाण-कर्म जो संचित में भरती हुए हैं, प्रायः उनकी स्फुरणा मुख्य रहती हैं | कभी-कभी संचित में संगृहीत पुराने कर्मों की भी स्फुरणा होजाती हैं |
फल-अंश से बने ' प्रारब्ध ' से हम सब थोड़ा बहुत परिचित है इसकी विस्तृत विवेचना आगे करेंगे ही, यहां "स्फुरणा" संभवतः बहुत से मित्रों के लिए नया शब्द होगा अतः इसे समझने का प्रयास करते हैं -
जैसे - किसी बर्तन में लहसुन डाल दे और उसके ऊपर चना, मूंग,बाजरा डाला जाये तो निकालते समय जो सबसे बाद में (ऊपर) बाजरा डाला था वही पहले निकलेगा मगर बीच में कभी-कभी लहसुन का भभका भी आ जायेगा..
यद्यपि ये दृष्टांत पूरा नहीं है, केवल समझने का प्रयास अंश मात्र हैं कि नये क्रियमाण कर्मों की स्फुरणा अधिक होती हैं और कभी-कभी पुराने कर्मों की भी स्फुरणा होती रहती हैं |
इसी तरह नींद आती हैं तो उसमें भी स्फुरणा होती हैं | नींद में जाग्रत-अवस्था के दब जाने से संचित कर्मों की वह संस्कार-अंश से बनी स्फुरणा स्वप्न-रुप से दीखने लगती हैं, इसी को स्वप्नावस्था कहते हैं | *
स्वप्नावस्था में बुद्धि की सावधानी न रहने से दृश्य क्रम, व्यतिक्रम और अनुक्रम ये नहीं रहते | जैसे शहर दिल्ली का दिख रहा है बाजार जयपुर का और दुकानें किसी तीसरी जगह की दीखती है, कोई जीवित मनुष्य दीख जाता हैं , तो कभी किसी मरें हुए आदमी से मिलना, बातचीत हो जाती हैं , आदि सब स्फुरणाओं का दृष्टांत है |
(*जाग्रत-अवस्था में भी जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों अवस्थाऐं होती हैं; जब हम सावधानी से कार्य करते हैं तो जाग्रत में जाग्रत-अवस्था, सावधानी से थोड़ा भी ध्यान बंटा की अचानक दूसरी स्फुरणा होने लगी हम कार्य स्थल से ख्यालों में अन्यत्र पहुंच चुके होते हैं, यही जाग्रत में स्वप्न-अवस्था हैं | जाग्रत-अवस्था में कभी-कभी कार्य करते हुए भी उस कार्य की तथा पूर्व कर्मों की कोई भी स्फुरणा नहीं रहती, वृति-रहित अवस्था हो जाती है, वह विलक्षण क्षण† जाग्रत में सुषुप्ति-अवस्था हैं |
कर्म करने का वेग अधिक रहने से जाग्रत में जाग्रत और स्वप्न अवस्थाऐ तो अक्सर होती रहती हैं पर जाग्रत में सुषुप्ति अवस्था बहुत कम होती हैं यह समाधि से भी विलक्षण हैं; क्योंकि यह स्वतः होती हैं † इसीलिए मैनें इस स्थिति के लिए "विलक्षण-क्षण" कहा हैं | अगर कोई साधक जाग्रत की स्वाभाविक सुषुप्ति को स्थाई बना ले तो उसका साधन बहुत तीव्र हो जायेगा ; क्योंकि जाग्रत-सुषुप्ति अवस्था में मनुष्य का परमात्मा के साथ निवारणरुप से स्वतः संबंध होता हैं | जबकि 'समाधि में अभ्यास द्वारा वृतियों को एकाग्र तथा निरुद्ध करना पड़ता है | समाधि में पुरुषार्थ के दृढ़ निश्चय और सुयोग्य गुरु की कृपा से शरीर में स्थित होती हैं |
खैर वैसे तो निंद्रा सुषुप्ति अवस्थाओं में मनुष्य का संसार से संबंध टूट जाता हैं ; परंतु बुद्धि-वृति अज्ञान में लीन होने से स्वरुप का स्पष्ट अनुभव नहीं होता मगर जाग्रत-सुषुप्ति में बुद्धि जाग्रत रहने से स्वरुप का अनुभव होता हैं | )
जाग्रत-अवस्था में हरेक मनुष्य के मन में अनेक तरह की स्फुरणाएँ होती रहती हैं |
जब जाग्रत-अवस्था में शरीर, इंद्रियों और मन पर से बुद्धि का अधिकार हट जाता हैं, तब मनुष्य जैसा मन में आता हैं वैसा ही बोलनेे लगता हैं | इस तरह उचित-अनुचित का विचार शक्ति काम न करने से वह 'सीधा-सरल पागल' कहलाता हैं |
परंतु जिसके शरीर,इंद्रियों और मन पर बुद्धि का अधिकार रहता है, वह जो उचित समझता हैं वैसा बोलता हैं और जो अनुचित समझता है , वह नहीं बोलता | बुद्धि सावधान रहने से वह सावचेत रहता हैं, इसलिए 'चतुर पागल' हैं !
इस प्रकार मनुष्य जब तक स्वरुप / परमात्म की प्राप्ति नहीं कर लेता स्फुरणाओं से स्वंय को बचा नहीं सकता | परमात्म- प्राप्ति होने पर बुरी स्फुरणाऐं सर्वथा मिट जाती हैं | इसीलिए जीवन्मुक्त महापुरुष के मन में अपवित्र बुरे विचार कभी आते ही नहीं |
अगर उसके कथित शरीर में प्रारब्धवश (व्याधि रोग आदि किसी कारण) कभी बेहोशी,उन्माद आदि हो जात है तो उस अवस्था में भी वह न तो शास्त्र निषिद्ध बोलता हैं, और न ही शास्त्र निषिद्ध कुछ करता है | क्योंकि अंतःकरण शुद्ध हो जाने से शास्त्र-निषिद्ध बोलना या करना उसके स्वभाव में नहीं रहता |
यहां संचित कर्मों एवं क्रियमाण कर्मों के संस्कार-अंश से उत्पन्न " स्फुरणाओं" का बहुत महत्वपूर्ण असर आगे होने वाले कर्मों में अनायास शुभ-अशुभ कर्म के रुप में होता है जिनकी शुद्धि करना भी मनुष्य जीवन का लक्ष्य हैं |
सच में मित्र आपने बहुत अच्छा लिखा है पढ़ कर बहुत ही आनंद प्राप्त हुआ। आपको बहुत-बहुत साधुवाद।
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